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एकादशी का बेहतरिन नाटकीय मंचन दिल्ली में: डॉ. कैलाश कुमार मिश्र



दिल्ली सबका है इसीलिये अच्छा है। इतिहास में दिल्ली अनेक बार बनता बिगड़ता रहा है लेकिन बहुवचन के सिद्धांत पर कभी समझौता नही हुआ। बहुत कम शहर दुनियाँ में हैं जो इस साझी बिरासत को साथ लेकर जीते और मरते हैं, बनते और बिगड़ते हैं। कभी-कभी कुछ क्षण के लिए भले किसी विशेष समुदाय अथवा वर्ग का वर्चस्व हो जाता है यहाँ, अंततः विवधता का ध्वज फहराने ही लगता है।
मैथिली संस्कृति कुछ अंदरूनी, राजनीतिक कारणों से और मूल रूप से सामुहिक पलायन से बुरी तरह फंसी हुई है। लोग महानगरों में आ रहे हैं, रोजगार मिलने पर वहीँ घर बनाकर बसा रहे हैं। आधुनिकता और रोजगार को ध्यान में रखकर बच्चे या तो मैथिली नही बोलते या बिलकुल काम चल जाए इतना बोल लेते हैं। स्थिति अच्छी नही है। जो लोग 1955 से 1985 तक उस धरती पर जन्म लिए हैं, वे संस्कृति के बिखराव से द्रवित हैं। उनके मष्तिष्क में अपना गाँव, अपनी धरती, लोकाचार, अपने लोक, अपने गीत, नाटक सभी कुछ बार-बार कौंधते रहते हैं। नास्टैल्जिया उन्हें अपनी परंपरा से बिमुख नही होने देता।
ऐसे ही लोग दिल्ली जैसे महानगरों में सप्ताह भर के रोज़ी रोटी के जुगाड़ के बाद अपनी संस्कृति और वहां के लोगों से कलाकारों से मिलते हैं। अपनी धरती के अनूठे तत्व को यहाँ भले की कुछ पल के लिए क्यों नहीं, साकार करना चाहते हैं। इसी तरह से वहाँ के नाट्य और संगीत परंपरा को स्मरण करते हैं। गाँव में जो पेट्रोमेक्स की रौशनी से नाटक का मंचन होता था, पुरुष ही स्त्री की भूमिका निभाते थे, फिर भी दर्शकों के उत्साह का क्या कहना! उस मीठे पल को महानगरों में आधुनिक सुविधा से युक्त प्रेक्षागृहों में भी प्रवासी मैथिल अपनी कला के प्रदर्शन से साकार करना चाहते हैं। फिर नाट्ययात्रा मधुबनी, दरभंगा, सहरसा, पूर्णिया से चलकर पटना, रांची कोलकाता होते हुए दिल्ली आकार यात्रा को अधिक देर के लिए विराम लेती है। यह अभी भी अर्ध विराम है, पूर्णविराम नही है। क्योंकि अब यात्रा का सुगबुगाहट लन्दन, न्यूयॉर्क में भी दिखने लगा है।


मलंगिया जी के निर्देशन से कुमार शैलेश से होते हुए प्रकाश झा एवं उनके सहयोगी के निर्देशन की यात्रा सुखद और संतोषप्रद है। आज मैथिली रंगमंच कम से कम दिल्ली में इस अवस्था में है कि इसे हिंदी एवं अन्य बहुत से भाषा और संस्कृतियों के रंगमंच से 21 कहा जा सकता है, 19 नही। मेरे इस कथन में यथार्थ का प्रमाण है रोमाच का पुट नही। जो लोग पिछले २ वर्ष से लगातार दिल्ली के बिभिन्न प्रेक्षागृहों में मैथिली नाटको का मंचन देख रहे हैं वे मेरी बात से जरुर सहमति रखेंगे। परंपरा के साथ-साथ आधुनिक तकनिकी का प्रयोग, नाट्य में वाद्ययंत्र, अनेक तरह के नृत्य का समावेश, कथा के अनुरूप मार्शल कला आदि का प्रयोग, स्थानीयता से सार्वभौमिकता में प्रवेश कुछ ऐसे बिंदु हैं जो दर्शकों को नयी दुनियाँ, कल्पना और सौन्दर्यबोध की दुनियाँ में ले जाते हैं, तुलनात्मक दुनियाँ में ले जाते हैं। कोलकाता जैसे महानगर में जहाँ आज भी बहुत मुश्किल से एक आध नारीपात्र के अभिनय के लिए मैथिलानी मिल पाती है, और लाचार होकर निर्देशकों को बंगाली महिलाओ को लेना पड़ता है, वहीँ दिल्ली में किसी भी तरह की भूमिका के लिए मैथिलानी सहजता से उपलब्ध है। उपलब्ध ही नही, अपनी अभिनय से सबको चमत्कृत करती हैं। महिला कलाकारों के अभिनय पर दर्शक झूमते हुए तालियों के गर्गाराहट से हाल को कोरस संगीत में भर देते हैं। किसी भी मायने में मैथिलानी पुरुष कलाकारों से कम नही है – सौम्यता, सहजता, रौद्र, उग्र, बीभत्स, हास्य, करुणा, श्रृंगार, या फिर रोमास। मन और तन दोनों में सुंदर। चैलेंज को ऐसे स्वीकार करती हैं की लगेगा की ये है परिवर्तन की दशा को निर्धारित करनेवाली परिवर्तन तंत्र हैं! इसमें अगर कमी है तो पारखी आलोचकों की। मैथिली साहित्य और मैथिली नाट्यकला दोनों ही पारखी आलोचकों की कमी से परेशान है। ना तो साहित्य को आलोचक मिल रहे हैं ना ही नाट्यकला, संगीतकला, और गीत को। कुछ लोग मेरी बात का विरोध कर सकते हैं, लेकिन उनके विरोध से यथार्थ नही बदल जायेगा। विरोध के स्थान पर एक पारखी समालोचक समुदाय का निर्माण आवश्यक है।
कलाकार स्वभाव से भानात्मक होते हैं। उनको भी आलोचना सहने और उसपर अलम करने की आदत नही है। एक आलोचना से चिढ़ उठते हैं। भावना में बहने लगते हैं। दोष उनका नही, मार्मिक आलोचकों की कमी का है। अगर उचित समालोचना हो तो कलाकार अपने को रोज़ ढालेंगे, नए अवतार में दिखेंगे, और कला को नित नयी उंचाई पर ले जायेंगे।
19 सितम्बर को दिल्ली के मुक्तधारा ऑडिटोरियम में हरिमोहन झा रचित एकादशी के नाट्य रूपांतरण एक बार फिर से देखने का मौका मिला। इसका नाट्य रूपांतरण और निर्देशन युवा कलाकार और निर्देशक मुकेश झा ने किया है। पहली बार आनन्दित हुआ था लेकिन लगा की कहीं न कहीं कुछ गैप है, कुछ कमी है। हरिमोहन झा जो कालजयी साहित्यकार हैं और हरेक मैथिल के मन प्राण में बसे हुए हैं, नाटक में ढालना सहज काम नही है. जोखिम है इसमें। इस जोख़िम को एक युवा निर्देशक उठाये तो बहुत अच्छा लगता है। चाहकर भी बहुत नही लिख पाया. लगा मौन रहना बेहतर है। कुछ कलाकारों को व्यक्तिगत रूप से कुछ सुझाव जरुर दिया।
इसबार जब गया तो लगा नया कुछ नही मिलनेवाला है – वही निर्देशक, कलाकार और परिवेश। लेकिन मुकेश और उनके कलाकारों ने इसबार मुझे मन्त्रमुग्ध कर दिया। बाह! बाह!बह!
इसमें हरिमोहन झा की तीन कथा - "घर जमाय", "तिरहुताम" और "ग्रेजुएट पुतहु" का मंचन था। प्रथम कथा के मंचन में सूत्रधार के रूप में मायानन्द झा का प्रवेश मन को मोह लेता है। संतोष कुमार का अभिनय एक भगता के रूप में बेहेतरीन है। घर जमाय के क़िरदार का अभिनय भी उतना ही खुबसुरत। इस कथा में सुधा झा, निशा और सभी महिला पात्र का अभिनय में एक ठोस परिवर्तन आता है। नाटक के माध्यम से निर्देशक दर्शक को कथा कह पाने में सक्षम हो सके हैं।
दूसरी कथा तिरहुताम का मंचन भी बहुत अच्छा है। राजीव रंजन और संतोष कुमार कथा में प्राण लाते है अपनी बेहतरीन अभिनय के द्वरा।
तीसरी और अन्तिम कथा ग्रेजुएट पुतहु का क्या कहना। एक बार फिर मायानन्द झा ससुर की भूमिका में बेजोड़ अभिनय का नमुना पेश कर पाए हैं। मायानन्द को अभिनय करते देखता हूँ तो अनुपम खेर, संजीव कुमार, और आलोकनाथ जैसे कलाकारों की छवि जेहन में उभरने लगता है। ये कलाकार युवा अवस्था में बुजुर्गों की अमिट भूमिका निभाते रहे और दर्शकों के ह्रदय में छाये रहे। मायानन्द भी कुछ ऐसे ही करता है। इसबार सुधा और निशा के अभिनय में भी बहुत निखार आया है।
हरिमोहन झा अपनी व्यंग्य से समाज पर दमदार प्रहार करते हैं। पहली कथा में दहेज़, पुरुष के दंभ, और धन के प्राबल्य पर प्रहार है; दूसरी कथा “तिरहुताम” में बेवजह आतिथ्य और दिखावा पर जमकर प्रहार किया गया है; और तीसरी और अन्तिम कथा “ग्रेजुएट पुतहु” के माध्यम से पितृसत्तात्मक व्यवस्था जिसमे महिला का पढ़ा लिखा होना, स्वंतंत्र ख्याल का होने, जीवन के प्रति साकांक्ष होना किस तरह से समाज के निर्धारित व्यवस्था के विपरीत है, इसपर प्रहार किया गया है। जब ग्रेजुएट पुतहु को सांप काट लेता है और उसके शव को जलाने के लिए ले जाया जाता है तब उसकी सास द्वारा यह कहना, “मडुआ ढेसरक बीच कतौं कुमुदनी फुलेलैक अछि? भगवानो के अन्कच्छ्ल लगलनि। उठा लेलथिन।" इससे यह पता चलता है कि जब समाज में कुछ बिपरीत परिस्थितियाँ हों तो वयंग्य का निर्माण होता है। इस निर्माण हो हरिमोहन झा का जवाब नही है। प्रकाश झा की उपस्थिति का अपना अलग महत्त्व है जिसे दर्शक ने अनुभव किया होगा।
एकादशी की विशेषता यह है कि हरिमोहन झा इसमें व्यंग्य मिथिला में सर्वाधिक सभ्रांत और शिक्षित कहे जानेवाले मैथिल ब्राह्मणों पर किया है -बेख़ौफ़ और बेबाक होकर। कथा के साथ दर्शक नाट्य मण्डली के लोगो के सहयात्री बन जाते हैं और 1960 से 1970 के दशक में प्रवेश करते हैं। 
पूरे नाटक में अति सामान्य वस्त्र और स्टेज सज्जा से पात्रों के दमदार अभिनय से ही दर्शकों के हृदय में पहुचा जा सकता था। थोड़ी असावधानी से मामला बिगड़ जाता। लेकिन इस बार कोई भी और कहीं भी इस तरह की गलती का एहसास नहीं हुआ।

अंत में उत्तम कोटि के प्रस्तुति के लिए मुकेश झा और पुरे टीम को धन्यवाद।

मैथिली भोजपुरी अकादमी को कोई मैथिली अथवा भोजपुरी भाषी सचिव आजतक नहीं मिल पाया इस बात का दुःख और दंश कम से कम मैथिलों को बार बार झेलना पर रहा है। दो उदाहरण देना उचित समझता हूँ:
वर्तमान सचिव श्री विष्ट ने 15 अगस्त की पूर्व संध्या पर आयोजित कवि गोष्ठी में विद्यापति के जय जय भैरवि गीत को भोजपुरी गीत कहा था और विद्यापति का नाम तक नहीं लिया था। इस नाटक के दौरान मुख्य अतिथि हिंदी और भोजपुरी अकादमी कह रहे थे। सचिव महोदय को वहां तुरत स्पष्ट करना चाहिए था की ये मैथिली भोजपुरी अकादमी है, हिंदी नही। लेकिन उन्होंने ऐसा करना उचित नही समझा।
इतना ही नही, छोटे से ऑडिटोरियम में भी दर्शक भरे हुए नही थे। यह इस बात को स्पष्ट करता है की अकादमी ने ईमानदारी से लोगों को आने के लिए आमंत्रित नही किया। मै यह बात किसी दुर्भावना से नही अपितु सुधार के लिए लिख रहा हूँ।
अभी इतना ही।

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