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‘स्वप्न’ और ‘स्वप्नभंग’ के कथाकार: प्रभात रंजन- ध्रुव कुमार


स्वप्न और स्वप्नभंग के कथाकार: प्रभात रंजन
ध्रुव कुमार
शोधार्थी
हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय

            वर्तमान दौर में लिखी जा रही कहानियों में सपनों और उसके यथार्थ या कहें स्वप्नभंग की कहानियों के लेखन में प्रभात रंजन एक यूनिक’, यथार्थवादी और एक अलग किस्म के आंचलिक कहानीकार हैं। उन्हें रेणु आदि की परंपरा का आंचलिक कथाकार मानना तो सही नहीं है पर उनकी बहुधा कहानियों की थीम लोकेशन’, पात्र-वर्ग, परिवेश और घटनाएं इत्यादि ध्यान से देखे जाएं तो एक अंचल विशेष का पूरा वातावरण उनके यहां मौजूद है। उनकी कहानी में सीतामढ़ी है, मुजफ्फरपुर है, चतुर्भुज स्थान है, नेपाल को आने जाने वाले रास्ते हैं, बख्तियारपुर हैं, सुरसंड है, मोरसंड है, बरबरना है, ढेलमरवा गोसाई है, भोजपुरी गाना है, यहाँ तक कि कट्टा है वह भी देसी। वर्तमान समय की आंचलिकता रेणु की आंचलिकता से भिन्न है। अमृतलाल नागर के बारे में अपने हिंदी साहित्येतिहास की भूमिका में डॉ० सूर्य प्रसाद दीक्षित लिखते हैं, नागर जी का तीसरा विशिष्ट प्रयोग है- आंचलिकता का परिविस्तार। रेणु के मैला आंचल के बाद आंचलिक उपन्यासों का जो स्वरुप उभरा, वह अज्ञात, या अर्द्धज्ञात कथा-भूमियों से संबंधित था। अर्थात बहुत पिछड़ा और उपेक्षित आदिम या देहाती परिवेश। धीरे-धीरे इसका परिविस्तार कस्बायी जीवन तक हुआ। नागर जी ने आंचलिकता का अभिनिवेश शहरी जीवन में किया।[1] अर्थात आंचलिकता की परिभाषा भी समयानुरूप बदली जा सकती है। बदलते हुए अंचल के साथ बदलती हुई आंचलिकता भी संभव है। नागर जी की आंचलिकता रेणु की आंचलिकता से भिन्न थी और नौवें दशक की आंचलिकता उन दोनों की आंचलिकता से भिन्न है। इस तरह एक पारंपरिक आंचलिकता के चित्रण से भिन्न होते हुए भी प्रभात रंजन के प्राय: सभी कहानियों की जमीन एक अंचल विशेष ही है और उनको नव आंचलिक कहानीकार की संज्ञा दी जा सकती है।

            प्रभात रंजन की कहानियों में जो घटनाएं हैं उनका कारण और उनका समय पहचानने के लिए जानकीपुल कहानी का यह एक पैरा ही पर्याप्त है, जब तक पक्की सड़क नहीं बनी थी मधुवन गांव के लोग बड़े संतोषपूर्वक रहते और नदी के उस पार के जीवन को शहर का जीवन मानते और अपने जीवन को ग्रामीण और बड़े संतोषपूर्वक अपना सुख-दुख जीते। कोलतार की उस पक्की सड़क ने उनके मन को उम्मीदों से भर दिया था।[2] यहां कोलतार की पक्की सड़क को हम प्रतीक रूप में आधुनिक संचार का पर्याय मान सकते हैं। टी०वी०, कंप्यूटर, इंटरनेट आदि आधुनिक संचार का युग अर्थात भूमंडलीकरण का युग अर्थात पिछली सदी का नवाँ दशक। संचार के इन आधुनिक उपकरणों से मधुबन सीतामढ़ी से जुड़ा, गांव शहरों से जुड़ा, भारत विदेशों से जुड़ा। सभी समानांतर जुड़ते रहे और क्रमिक रूप से अपने से आधुनिक और विशिष्ट शहरों, महानगरों अथवा विदेशी संस्कृति से अवगत और संक्रमित भी होते रहे। संचार की सुगमता से सपनों का जो दौर इस युग में चला वह आज भी बदस्तूर जारी है। ऐसा नहीं है कि इसके पहले सपने नहीं होते थे सपने होते थे पर साथ में उनके पूरा होने तक का धैर्य भी होता था, मेहनत होती थी, लगन होती थी। पर अब के सपनों में धैर्य नहीं होते, अधीरता होती है, व्याकुलता होती है येन केन प्रकारेण उन्हें पा लेने की, पूरा कर लेने की। और यही कारण होता है उनके प्रायः चटख जाने का, टूट जाने का, उनके भंग हो जाने का यानी स्वप्नभंग का।

            प्रभात रंजन की कहानियों में सपने कहां, किसके पास नहीं है? मोनोक्रोम के राहुल का सपना, फ्लैशबैक के बांकेबिहारी का सपना, इजी मनी के कल्पांत और विशाल का सपना, लापता के सूरज जी का सपना, पर्दा गिरता है के शालीन और शीरीन का सपना, डिप्टी साहब के चंद्रमणि का सपना, मिस लिली की लिली का सपना, जानकीपुल के मधुबन वासियों का सपना और इसी तरह सुबिमल भगत जी का, चंद्रचूड़ जी का, चितरंजन बाबू का सपना, नयनतारा और मयंक का सपना, बंडा भगत और साजनसिंह का सपना, इंदल सत्याग्रही, बाबू राम खेलावन और अभिरंजन कुमार का सपना, सुमन कुमारी का सपना, पंकज उर्फ पिक्कू के बोलेरो क्लास में जाने आदि के सपनों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है। साथ में उतनी ही लंबी फ़ेहरिस्त है उनके सपनों के बिखरने की भी। करियर में असफलता के साथ-साथ अपने प्रेम में भी असफलता मोनोक्रोम कहानी के राहुल को इस दुनिया में कहीं बहुत ही पीछे गुम हो जाने का एहसास कराती है। बाँकेबिहारी अपने राजनीतिक जीवन में इतना उतार-चढ़ाव देखने के बाद अंततः गिरफ्तार होकर दिल्ली के अखबारों के समाचार का हिस्सा बन जाते हैं। कंपटीशन देते-देते चंद्रमणि अपने दोनों ही सपनों, आईएएस बनने और चंपा टॉकीज के मालिक गणेशी बंका की बेटी महुआ से विवाह करने से महरूम रह जाता है। बेंगलुरू से फ़िल्ममेकर का टैग लगा कर वापस आने के बाद भी कल्पांत और उसके पुराने सहपाठी विशाल को एक नेता के कटआउट में सरकारी कामों की सूची लिखने और उसके प्रूफिंग के काम में संतोष करना पड़ता है। अच्छे भले दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे सूरज जी को घर बार छोड़कर भाग जाना पड़ता है। यह अकारण नहीं है कि ये सपने घर घर में टी०वी० आ जाने के बाद अचानक सफल टीवी सीरियल या फिल्म स्क्रिप्ट राइटर बनने, सिंगर बनने, रुतबा हासिल करने के लिए नेता बनने, अच्छा पैसा कमाने, बड़ी गाड़ी में चलने के रूप में लोगों की आंखों में पलने लगे। यह सभी सपने एक निश्चित समय और परिवेश की देन हैं। अपने समय को अपनी रचनाओं में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लाने की सायास चिंता प्रत्येक साहित्यकार को सच्चा बनाती है। वरिष्ठ कथालोचक सूरज पालीवाल के शब्दों में कहें तो, हर रचनाकार अपने समय को रचता है और ऐसे समाज का निर्माण करता है जिसे वह चाहता है। इसीलिए वह उपेक्षित और चिंतित रहता है।[3] यही समय प्रभात रंजन की कहानियों का समय है।

            इन कहानियों को अपने समय से जोड़कर सुनाने वाला एक वाकसिद्ध किस्सागो है, एक काल्पनिक वाचक या नैरेटर है, जो मालूम नहीं स्वयं लेखक है या कोई और है, जो सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर का पढ़ा-लिखा, रहने वाला है। जिसने गाजियाबाद के किसी मैनेजमेंट कॉलेज से एमबीए किया है। उसके पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज और हिंदू कॉलेज से भी पढ़ चुका है। मानसरोवर छात्रावास में रह चुका है, जिसने कुछ दिन प्राइवेट नौकरी भी की है और जो वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी कॉलेज में पढ़ाता भी है, और जिसे रोज सवेरे अखबार पढ़ने की आदत है। वह एक असफल प्रेमी भी रहा है, उसके कुछ मित्र मुंबई में फिल्मी दुनिया में जा बसे हैं, उसे सिगरेट, बियर और वाइन की अच्छी जानकारी है और इन सभी कहानियों का सूत्रधार भी वही है। दोनों संग्रह की प्रायः सभी कहानियां कहानियां हैं अथवा इसी वाचक की पुरानी डायरी के कुछ पृष्ठ, पहचानना मुश्किल है। इसी कारण ये कहानी-संग्रह कई अलग-अलग कहानियों का संग्रह न होकर एक ही बड़ी कहानी की छोटी-छोटी कहानियां जान पड़ती हैं। सभी एक दूसरे से गुंथी हुई, एक दूसरे के पूरक, एक दूसरे का विस्तार करती हुई। इन कहानियों का वैविध्य एक ही हाथी के विविध अंगों की भांति देखने में अलग-अलग लगते हुए भी पूर्णता में होती एक ही हैं। टुकड़ों में बंटी जिग्शा की पहेलियां की तरह सबको मिला देने पर हमें एक कंप्लीट पिक्चर आसानी से मिल जाती है।

            इन संग्रहों की कहानियों के केंद्र में युवा हैं, जिनकी महत्वाकांक्षाओं, सपनों की कोई सीमा नहीं है। अपनी जीवन यात्रा में वह भुलावे में जी रहे होते हैं और अंत में उनके हाथ लगती है घोर निराशा। ध्यातव्य है कि इस निराशा के लिए कहानीकार न तो सरकार को कोसता नजर आता है, न समाज और परिवार को, यहां तक कि खुद पात्र को भी नहीं। इसके पात्रों की असफलताएं मानो उनकी नियति का एक हिस्सा हो जो अनिवार्य रूप से कहानी के अंत होते-होते तक आनी ही हैं। फिर भी सुखद यह है कि असफलता और इतनी निराशा के बावजूद भी कहानी के किसी पात्र की जिजीविषा शक्ति अपना दम तोड़ती नजर नहीं आती। वह जीवन जीने के किसी और रास्ते का वरण कर ही लेती है। मानसिक उलझन और संत्रास के साथ भी वह समाज और दुनिया की नजरों के सामने अपनी एक राह पर चलती चली जाती है। यह इन कहानियों की सफलता ही मानी जाएगी। दूसरी और देखें, उदारीकरण के आगमन के बाद सूचना और संचार के संजाल में उलझे ग्रामीण और कस्बाई युवकों के सपने भी बड़े हुए और उसके साथ-साथ प्रतिस्पर्धा भी बहुत तेजी से बढ़ी। युवा गांव से शहरों, शहरों से महानगरों की ओर रुख करने लगे। शहरों और महानगरों की अपनी समस्या कि वह एकोर से सबको पचा नहीं सकते और युवकों की अपनी समस्या कि एक बार यहां आकर वह वापस गांव जा नहीं सकते। तौहीनी का सवाल था। हर कोई चंद्रमनि डिप्टी साहब तो हो नहीं सकता जो गांव वापस जाकर भी सम्मान के साथ अपना कोई काम शुरू कर सके। ऐसे में उनकी स्थिति उस मध्यवर्ग की हो गई जो उच्च वर्ग में जाने के सपने देखते रहता है और जा नहीं पाता व निम्न मध्यवर्ग में जाना नहीं चाहता और उनसे भी दूरी बनाए रखता है। इसी तरह सरकारी बंगला, गाड़ी का सपना संजोए महानगरों में आने वाले युवा असफलता हाथ लगने के बाद न तो वहां रुक पाता है न ही अपने कस्बे वापस जा पाता है। मजबूरन शहरों में ही वह अपने भविष्य के प्रति सहानुभूतिक होते हुए तरह-तरह के समझौते करते हुए आगे बढ़ता रहता है। इजी मनी कहानी का विशाल फ़िल्म और सीरियल के स्क्रिप्ट लिखने का सपना लिए हुए, पर कहीं काम न मिल पाने की दशा में नेता के कटआउट के नीचे उनकी सरकार के द्वारा किए गए कामों की सूची लिखने और उसका प्रूफ पढ़ने तक के लिए तैयार हो जाता है। बेरोजगारी में अपने सपनों और मूल्यों से समझौते पर बड़ी ही साइलेंट और मार्मिक कटाक्ष करती नजर आती है यह कहानी। लापता कहानी अपनी शैली में अनायास ही प्रख्यात कथाकार उदय प्रकाश की कहानी मोहनदास की याद दिलाता है। कहानी में सच कितना है और कहानी कितनी है इसी विचार, संशय और उत्सुकता में पाठक एकबारगी पूरी कहानी पढ़ जाता है। कहानी में बीच-बीच में सच से जुड़े ऐसे सुराग भी लेखक देता रहता है कि पाठक बैठे ही बैठे स्वयं को एक खोजी और तफ़्तीशी मानने लगता है। सच का यही सुराग पाठकों की संवेदना को भी अचानक से झकझोरने का काम करता है। सूरज जी के बहाने पूरी कहानी में जो पाठक विश्वविद्यालयी रिसर्च व्यवस्था और रिसर्चरों पर व्यंग्य की अनुभूति में डूब-उतरा रहा होता है, मसलन, बदलने के नाम पर वहां सिर्फ अफवाहें बदलती हैं। वर्षों के थके-हारे शोधार्थी, विश्व-बाजार में बदल चुकी राजधानी दिल्ली के टोले सरीखे शोध-तल पर अफवाहों से ही अपनी उबासी और उदासी तोड़ते रहे हैं। अफवाहें ही रही हैं जो बरसों पहले डॉक्टर की उपाधि प्राप्त कर या किसी अन्य कारण से शोध-तल से विदा ले चुके लोगों को, शिक्षण-पत्रकारिता जैसे पेशों में जा चुके लोगों को वहां बासी समोसे और ठंडी चाय पीने के बहाने आने को मजबूर कर देते।[4] अथवा मैं भी कहां अपना रोना ले बैठा और उस मनहूस शोध-तल का, जहां बरसों से किलो के भाव से रिसर्च कर के लोग अपनी जवानी बर्बाद करने में लगे हैं।[5] वहीं कहानी का अंत होते होते पाठक उन्हीं सूरज जी को लेकर यथार्थ के धरातल पर ऐसी पटकनी खाता है कि उसके हास्य व्यंग्य की अनुभूति औचक सहानुभूति में बदल जाती है। एक गंभीर शोधार्थी, फिल्मों-रंगमंच की अच्छी परख और समझ रखने वाले सूरज जी किस कदर गांजे और चरस के लती हो जाते हैं और अंततः डिप्रेसिव फीवर तक के शिकार हो जाते हैं। वह नशाखोर बनते हैं, ट्रांक्विलाइजर की लगातार डोज़ पर आते हैं, और अंतत: सब कुछ छोड़-छाड़ कर ऋषिकेश में साधु के रूप में देखे जाते हैं। इसके पीछे का असली कारण सलोनी है अथवा जामिया में मास कॉम में एडमिशन न होना है अथवा पटना में व्याख्याता पद पर उनका सिलेक्शन न होना है यह तो अलग से एक मनोविश्लेषण का विषय है पर इतना जरूर है कि लेखक भी इस पर बात करने से बच कर निकल जाता है। यह उसकी शैली है अथवा कहानी के वाचक की अपनी प्रवृत्ति, जो कि पत्रकार है और जो बिना सबूत कुछ लिख नहीं सकता। पर इस कहानी में पात्र अपनी जिजीविषा शक्ति खोते दिखाई देता है। मोहभंग, वह आंतरिक हो अथवा बाह्य, संग्रह की प्राय: सभी कहानियों में है। पर उनकी परिणति ऐसी कहीं नहीं हुई है। उसके पात्र अपनी आजीविका और जीवन का कोई न कोई रास्ता जरूर निकाल लेते हैं। लापता कहानी में जितनी रूमानियत है अंत तक आते-आते उसमें उतना ही रौद्र यथार्थ भी है। इसी तरह जानकीपुल भी गाँव और शहर को जोड़ने वाला कोई सामान्य पुल न होकर वहाँ के निवासियों के सपनों का पुल है, उनके अरमानों का पुल है, जो अंत तक आश्वासन ही बनकर रह जाता है। समाज में आधारभूत संरचनाओं का विकास किस तरह समाज के आर्थिक विकास का परिचायक मात्र न होकर वहाँ के लोगों की उम्मीदों और सपनों का भी माध्यम बन जाता है, इस कहानी में बड़ी रवानगियत के साथ दिखाया गया है। संग्रह की प्राय: कहानियों की तरह संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी यह कहानी भारतीय राजनीति के खोखलेपन को भी बड़ी सहजता से उजागर करती है। इस प्रकार प्रभात रंजन की कहानियों में एक स्वस्थ और आदर्श परिवेश की तलाश है, तलाश है एक ऐसे माहौल की जहां युवा वर्ग लोभ-द्वेष, तृष्णा और बेकारी से दूर होकर अपनी रचनात्मक ऊर्जा को निराशा से बचाकर अपने, समाज और राष्ट्र के उत्थान में लगा सके। पर यह तलाश कब , कैसे पूरी होती है, दोनों कहानी-संग्रह इसी का लघु सामाजिक दस्तावेज़ हैं।



[1]हिन्दी साहित्येतिहास की भूमिका, भाग-, डा० सूर्यप्रसाद दीक्षित, पृ०-४२८, २०१०, उ० प्र० हिन्दी संस्थान, लखनऊ।
[2] जानकीपुल, प्रभात रंजन, पृ०१३३, २००८, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
[3] हिन्दी में भूमंडलीकरण का प्रभाव और प्रतिरोध, सूरज पालीवाल, पृ० ५३, २००८, शिल्पायन, दिल्ली।
[4] जानकीपुल, प्रभात रंजन, पृ० ६४, २००८, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
[5] जानकीपुल, प्रभात रंजन, पृ० ७५, २००८, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।

[जनकृति पत्रिका मई-जून 2017 अंक में प्रकाशित शोध आलेख]
[चित्र साभार: द लल्लनटॉप]

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