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गीता पंडित की रचनाएं...



 तब !!!!!
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कर्तव्य घुट्टी में पिलाए गये
दौड रहे हैं धमनियों में आज भी रक्त बनकर


अधिकार नामालूम से
सदियों की गर्त में खोये
बनाते रहे मुझे इतिहास
मेरी अस्तित्वहीनता
अंकित है शताब्दियों के पटल पर

धर्म के ठेकेदारों ने बनाया देवदासी
समाज ने वैश्या
कहाँ रह पायी स्त्री भी
बना दी गयी केवल भोग्या मात्र

आह !!!

रचते रहे पाखण्ड
जितना मुझे कहा गया
दुर्गा देवी चंडी
सर्वशक्तिशाली

उतना ही घसीटा गया
कहकर अबला
ज़िंदा जलाया गया
चौराहे पर लटका दी नग्न देह
निरीह बेबस लाचार बनाकर

मेरा था परिवार
मेरा था समाज
मेरा था देश अपना
मैं किसकी ?


हूँ बस योनि मात्र
जहाँ उम्र की पाबंदी नहीं
समय की पाबंदी नहीं
रिश्तों की पाबंदी नहीं
घर बाहर सब एक से

चाहती हूँ चीखना
चीख चीखकर एक बात कहना
इस अभद्र, अव्यवस्थित समाज से
नपुंसक होते हुए धर्म के ठेकेदारों से
अंधे बहरे गूंगे क़ानून से
अगर मैं ना कर दूँ तुम्हें अपनी कोख में रखना
तब !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

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बेशर्म आँखें
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समय ने कहा
सपने देखना पाप है तुम्हारे लिये
नहीं मानी बात
क्या करूँ
बेशर्म हैं आँखें
जीवन के नीरव निर्जन रेगिस्तान में
भरती रहती हैं ताल, तलैया
.................................................

देखना सच होते हुए सपने
.............
इस अँधेरे समय में भी
चल रही है वह
क्यूंकि वह एक स्त्री है
तुमने समझा उसे कागज़ की नाव
और फ़ेंक दिया तेज बारिश में



सही है देह गीली है
सही है आँखें पनीली हैं
फिर भी देखती है सपने
सपनों से लदी नाव को किनारे पर ले जाने के

तुम देखना
एक दिन सपने सच होते हुए
.......

(आने वाले कविता संग्रह से )

गीता पंडित
( सम्पादक शलभ प्रकाशन दिल्ली )
gieetika1 @
gmail.com
मो. 9810534442


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